चप्पल और औकात
प्रिय सुनील,
आप को यह पत्र लिख जरुर रही हूँ पर इसे आपको भेजूँगी नहीं क्योंकि आप विदेश में अपने कार्य में व्यस्त हैं . आपके कंधों पर हमारी पूरी ज़िम्मेदारी है जिसे आप भली- भाँति संभाल रहे हैं व निभा रहे हैं. आपने विदेश जाने से पूर्व मुझे समझाया था कि आपकी माँ को मैं अपनी माँ समझूँ , आपकी भाभियों को अपनी सगी बहनों से भी अधिक मान- सम्मान दूँ. आपके भाईयों को अपने बेटों की भाँति प्रेम करुँ और सभी का ख्याल रखूँ , सबकी संपूर्ण निष्ठा श्रृद्धा भाव से सेवा करुँ. पर शायद मैं आपकी आशाओं पर खरी नहीं उतर पा रही हूँ. निरंतर कोशिशों के बावजूद मैं आपके परिवार की नज़रों में एक अच्छी बहू, देवरानी या भाभी आदि नहीं बन पा रही हूँ. हर रोज मुझे अपनी आत्मा को मारना पड़ रहा है. मैं हर पल घुट रही हूँ . मैं रुपवती नहीं, मैं गुणवान नहीं , मैं आपके लायक नहीं , मेरी काली ज़ुबान है ... मेरी नज़र पड़ने के कारण आपके परिवार वालों की खुशियों को नज़र लग गई...... इन बातों को सुन- सुन कर मैं, थक गई हूँ. पूरी कोशिश करती हूँ कि माँजी के दिशा- निर्देश के अनुसार रसोईघर में खाना बनाऊँ, साफ- सफाई करूँ और स्वयं को भी आपके संभ्रांत परिवार व रईस खानदान के लायक बना सकूँ. पर शायद इस प्रयास में मैं, हर रोज़ विफल हो रही हूँ . माँजी , बड़ी भाभी, छोटी भाभी को मेरी हर बात बुरी लगती है . काम निपटा के यदि मैं, दो मिनट उनके पास बैठना चाहूँ तो वो लोग उस जगह का त्याग कर देते हैं. मैं एकाकीपन से जूझ रही हूँ . आपका बेटा चिराग सातवीं कक्षा में पहुँच गया है. मैं, उसका ख्याल नहीं रख पा रही हूँ.. उसकी पढ़ाई- लिखाई पर भी ध्यान नहीं दे पा रही हूँ. मैं, एक असफल माँ बन गई हूँ . पर मैं, क्या करुँ , आपके बड़े बँगले को घर बनाते- बनाते कब सुबह के चार बजे से रात के 11:30 बज जाते हैं....पता ही नहीं चलता .
आपको याद होगा कि आप अक्सर कहा करते थे कि, " मृ्दुला , तुम्हारे कमर के नीचे तक लहराते बाल, एक इंच भी अगर कम हुए या कभी तुमने इन्हें काटा तो उसी क्षण मैं , तुम्हारा परित्याग कर दूँगा . और मैं, आपकी इन बातों पर हँसा करती थी. पर अब आपकी मृ्दुला आपकी अमानत इन घने- रेश्मी बालों को भी नहीं संभाल पाई है. माँजी के खाने में एक दिन एक बाल निकल आया. मैंने माँजी को लाख समझाया कि यह बाल मेरा नहीं है..पर उन्होंने मेरी एक न सुनी और स्वयं कैंची लेकर उन्होंने मेरे सारे बाल काट दिए हैं. अब मेरी कान की बालियाँ भी मेरे कानों के बराबर मेरे बालों की लंबाई देख हवा में झूल -झूल उनसे उलझती हुईं , उनकी कमज़ोरी का मज़ाक उड़ाती हैं और मेरी लाचारी का हर पल मुझे अहसास कराती हैं. जी करता है कि इन स्वर्णाभूषणों को .. इन स्वर्ण की बालियों को निकाल फेंक दूँ .. पर यह आपके संभ्रांत परिवार की शान के खिलाफ होगा ........क्योंकि आपके रईस परिवार की बहू की पहचान उसके चरित्र से नहीं अपितु उसके स्वर्णाभूषणों से होती है.
कल की ही बात है... चिराग विद्यालय से वापस 2:30 बजे आया ..वो ऊपर के कमरे में टी.वी देखने लगा ...माँजी , बड़ी भाभी और छोटी भाभी भी वहाँ मौजूद थीं. मैं, रसोईघर में गई ...मैंने चिराग को खाना दिया और माँजी और भाभियों से भी पूछा परंतु उन्होंने मेरी बात का उत्तर नहीं दिया . वे शायद टी.वी धारावाहिक को बड़े ही गौर से देख रही थीं . टी.वी पर नया धारावाहिक ' हाई प्रतिमा ' शुरु हुआ है. एक सैकेण्ड मुझे भी धारावाहिक की पट्कथा आकर्षित करने लगी और मैं देखने लगी. पर अचानक माँजी और बड़ी भाभी को क्या हुआ कि उन्होंने कमरे के अंदर पड़ी चप्पल को देख मेरी ओर इशारा किया. इससे पहले कि मैं, कुछ समझ पाती ..छोटी भाभी ने कहा कि ये चप्पल कहाँ से आई...... कैसे आई ?? बड़ी भाभी ने कहा कि उड़ कर तो नहीं आई होगी ....जरुर कहीं न कहीं से तो आई ही होगी .... माँजी ने कहा कि प्रश्न वही उठता है कि ये चप्पल कहाँ से आई़..... छोटी भाभी ने कहा चप्पल सफेद रंग की है.. मेरी नहीं है ... बड़ी भाभी ने कहा कि , " अरे ! चप्पल , चप्पल है ... सफेद हो या काली ...लाल हो या गुलाबी... उसे पैरों पर ही पहना जाता है ताकि पैर गंदे न हों, उन्हें सिर पर नहीं बैठाया जाता है...."......... माँजी ने कहा, " सिर पर कौन बैठा रहा है ...ये चप्पल अभी तक तो यहाँ नहीं थी ... अभी जब हम तीनों यहाँ बैठे थे तब तक तो चप्पल यहाँ नहीं आई .... अभी एकदम से अचानक ये चप्पल कहाँ से आई??? .... इससे पहले कि मैं कुछ बोल पाती कि ये चप्पल मैं भी यहाँ नहीं लाई पर मुझे कुछ बोलने का किसी ने मौका ही नहीं दिया और सीधे माँजी ने उस चप्पल को पैर से जोर से उछाल कर फेंका और वो चप्पल सीधे मेरे पेट पर बहुत तेज लगी ... वो मेरी सास हैं, माँ समान हैं........उन्होंने ऐसा जानबूझ कर नहीं किया होगा पर मैं क्या करुँ चप्पल पेट पर लगने से मुझे दर्द हुआ.... अभी मुझमें जान बाकी है..............शायद इसलिये दर्द का अहसास हुआ होगा .... माँजी और दोनों भाभियाँ वापस ' हाई प्रतिमा' देखने लगीं और मैं, चुपचाप उस सफेद चप्पल को लेकर नीचे अपने कमरे में आकर उस चप्पल को घंटों तक निहारती रही. पता नहीं क्यों मेरे आँसू घंटों बाद भी नहीं रुके . पता नहीं क्यों स्वयं पर बार- बार नियंत्रण करने के बाद भी आखिरकार मैंने उस चप्पल को अपने मुँह पर जोर से दे मारा और उसे सिरहाने से लगा कर फूट- फूट कर रोती रही........ इसके बाद जब मेरी आँख खुली तो शायद दिन , रात में तब्दील हो गया था . शायद बारिश हो रही थी . मेरे चेहरे पर पानी की दो बूँद गिरीं , जिससे मेरी आँख खुली पर मेरी बुरी किस्मत कि वो बारिश की बूँदें नहीं थीं अपितु मेरे सिरहाने बेठे मेरे बेटे चिराग की आँखों से झलकी आँसू की बूँदें थीं.
मैं, बेहद शर्मिंदा हूँ कि मैं अच्छी माँ , बहू, भाभी , पत्नी आदि नहीं बन पाई . मैं , शर्मिंदा हूँ - बेहद शर्मसार हूँ . पर मैं, कोशिश करती रहूँगी कि आपके संभ्रांत व रईस खानदान के तौर- तरीकों को समझ सकूँ , जान सकूँ और एक दिन आप सबका मन व दिल जीत सकूँ . मुझे पूरा विश्वास है कि मेरी ज़िंदगी में भी कभी न कभी एक दिन ऐसा आएगा जब मेरी ज़िंदगी का अंधकार मिट जाएगा और सूरज की चमचमाती किरणों की तरफ मेरा जीवन भी उज्ज्वल व कांतिमय होगा. एक दिन ऐसा जरुर आएगा जब सब ठीक हो जाएगा . तब तक मैं, प्रयास करती रहूँगी . आप विदेश में कार्य करिये और मैं यहाँ माँजी और भाभियों के समक्ष हर दिन अपनी काबिलियत को सिद्ध करती रहूँगी . उम्मीद है कि मेरी इस कश्मकश में मेरी बेटा मुझे समझ सके.
आपकी अभागी
मृ्दुला .
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- शालिनी अवस्थी ( Shalini Awasthi )
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